BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

(ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)

सूत्र -लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः।

वृत्ति - लकाराः सकर्मकेभ्यः कर्मणि कर्तरि च स्युरकर्मकेभ्यो भावे कर्तरि च। अर्थ - लकार सकर्मक धातुओं से कर्म और कर्त्ता में तथा अकर्मक धातुओं से भाव और कर्ता में होते हैं।

व्याख्या - यहाँ धातुओं के दो प्रकार बताये गये हैं - एक सकर्मक तथा दूसरी अकर्मक। वे धातुएँ सकर्मक कहलाती हैं जिनके फल और व्यापार का आश्रय भिन्न-भिन्न होता है। जैसे 'पच' धातु। इसका फल विक्लिात्त चावलों में और पाक व्यापार देवट्त आदि में रहता है। अतः फल और व्यापार के भिन्न- भिन्न अधिकरणों में रहने से 'पच्' धातु सकर्मक है। वे धातुयें अकर्मक होती हैं जिनके फल और व्यापार का आश्रय एक ही होता है, जैसे- 'भू' आदि धातुएं। इस सूत्र से स्पष्ट होता है कि सकर्मक धातु से जोड़े गये लकार कर्ता या कर्म अर्थ को प्रकट करते हैं और अकर्मक धातु से जोड़े गये लकार कर्त्ता या भाव अर्थ को प्रकट करते हैं।

उदाहरण - 'पच्' 'भू'।

सूत्र - वर्तमाने लट्।

वृत्ति - वर्तमान क्रिया वृत्तेर्धातोर्लट् स्यात्। अटावितौ। उच्चारण सामर्थ्याद् िलस्य नेत्त्वम्। अर्थ - वर्तमान काल की क्रिया का बोध कराने वाली धातु लट् लकार होता है।

व्याख्या - वर्तमान काल की क्रिया को जो धातु प्रकट करता हो अर्थात् यदि धातुवाच्य क्रिया वर्तमान काल की हो तो धातु से लुट्लकार हो। 'लट्' के अकार (ल् + अ) तथा टकार (ट्) की इत् संज्ञा होती है। 'लट्' में 'ल' का उच्चारण किया गया है, इसलिए 'ल' की इत्संज्ञा नहीं होती है। यहाँ 'भू' धातु सत्ता (होना) अर्थ में है अतः वर्तमान अर्थ के वाचक इस धातु से 'लट्' प्रत्यय हुआ है। आरम्भ से लेकर क्रिया की समाप्ति तक वर्तमान काल समझा जाता है।

उदाहरण - भू + लट्।

सूत्र - तिप्तस्झि - सिप्थस्थ - मिबवस्मस् ताऽऽतांझ थासाऽऽयाध्वम् इड्वहिमहिङ्। वृत्ति- एतेऽष्टादश लाऽऽदेशाः स्युः।

अर्थ - तिप् तस् झि, सिप्, थस्, था, मिप्, वस्, मस् त, आतम्, झ,थास्, आथाम् ध्वय्, इड् वहि महिङ् - पे अट्ठारह आदेश लकार के स्थान पर होते हैं।

व्याख्या - इस सूत्र से लकार के स्थान पर होने वाले तिप् आदि अट्ठारह आदेश कहे गये हैं। ये आदेश सूत्र में 'ति' से लेकर 'ङ' तक पढ़े होने के कारण 'तिङ्' कहलाते हैं।

सूत्र -लः परस्मैपदम।

वृत्ति - लादेशाः परस्मैपदम्।
अर्थ - ल् के स्थान में जो आदेश हो परस्मैपद संज्ञा होती है।

व्याख्या - इस सूत्र से सामान्य करके विधान किया गया है कि लकार के स्थान पर जो तिप् आदि अट्ठारह आदेश हुए हैं उनकी परस्मैपद संज्ञा होती है। इस सूत्र के अपवाद में 'तड़ानावात्मनेपदम्' सूत्र से तङ् आदि नौ आदेशों की आत्म ने पद संज्ञा हो जाती है।

उदाहरण - भू + लट्। भू + तिप् यहाँ तिप् परस्मैपद संज्ञक है।

सूत्र -तड़ाऽऽनावाऽऽत्मनेपदम्।

वृत्ति - तङ् प्रत्याहारः शानच्कानचौ चैतत्संज्ञा स्युः। पूर्व संज्ञाऽपवादः।

अर्थ - तङ् प्रत्याहार के प्रत्यय और शानच् तथा कानच् आत्मनेपद संज्ञक होते हैं। यह पूर्वसंज्ञा का अपवाद है।

व्याख्या - यहाँ 'तिप्तस्झिसिप्थसूथ' सूत्र में पढ़े गये 'त' से लेकर 'महिङ्' तक के नौ आदेशों की आत्मन पद संज्ञा हुई। 'तङ्' प्रत्याहार में त् आताम्, झ, थास, आथाम्, ध्वम्, इङ् वहि, महिड् - इन नौ प्रत्ययों का ग्रहण होता है।

सूत्र - अनुदात्तेङित आत्मनेपदम्।

वृत्ति - अनुदात्तेतो ङितश्च धातोरात्मने पदं स्यात्।

अर्थ - जिसका अनुदात्त अच् इत् हो और ङित् धातुओं से आत्मने पद तङ् शानच् और कानच्

व्याख्या - जिन धातुओं का (उपदेशेऽजनुनासिक इत् सूत्र से) इत्संज्ञक अच् (स्वर) अनुदात्त है, तथा एध ञप आदि में तथा जिनमें अन्त में (हलन्त्यम् सूत्र से) इत्संज्ञक 'ङ्' जुड़ा है यथा शीङ्, इङ् इत्यादि उनसे आत्मनेपद प्रत्यय (तङ् शानच् आदि) होते हैं।

उदाहरण - 'एध'।

सूत्र -स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले।

वृत्ति - स्वरितेतो ञितश्च धातोरात्मनेपदं स्यात् कर्तृगामिनि क्रियाफले।

अर्थ - जिसका स्वरित अच् इत् हो और ञित् धातु से आत्मनेपद प्रत्यय हों यदि क्रिया का फल कर्तृगामी हो अर्थात् कर्ता को मिले।

व्याख्या - जिन धातुओं का इत्संज्ञक अच् (स्वर) स्वरित है तथा भज् यज् में अथवा जिनके अन्त में इत्संज्ञक अ है तथा हञ डुकृञ, भृञ् आदि धातुओं से आत्मनेपद प्रत्यय जुड़ते हैं, यदि क्रिया का फल कर्त्ता को प्राप्त हो अर्थात् यदि कर्त्ता स्वयं अपने लाभ के लिए उस क्रिया को कर रहा हो।

उदाहरण - अहं यजे (अपने त्रिञ्यत) अन्य के लिए (अहं यजाभि)

सूत्र -शेषात्कर्तरि परस्मैपदम्।

वृत्ति - आत्मनेपदनिमित्तहीनाद् धातोः कर्तरि परस्मैपद स्यात्।

अर्थ - आत्मनेपद के निमित्त से हीन धातु से कर्ता - कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है।

व्याख्या - भू धातु में उसके आत्मनेपद होने का कोई कारण प्राप्त नहीं होता है अत: इस सूत्र से भू धातु के कर्ता (कर्तृवाच्य) में परस्मैपद होता है। अर्थात् भू धातु से कर्ता की विवक्षा में परस्मैपद के तिप् से लेकर मस् तक नौ प्रत्यय आते हैं।

उदाहरण - 'भू'।

सूत्र - तिङ् स्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः।

वृत्ति - तिङ् उभयोः पदयोस्त्रास्त्रिकाः क्रमाद् एतत्संज्ञा स्युः।

अर्थ - तिङ् के दोनों पदों (परस्मैपद और आत्मने पद) के जो तीन-तीन के समूह है उनकी क्रमशः प्रथम, मध्यम तथा उत्तम संज्ञा होती है।

व्याख्या - तिङ् के दोनों पदों (परस्मैपद आत्मनेपद् के नौ-नौ प्रत्यय) जो तीन- तीन के समूह हैं वे क्रमशः प्रथम, मध्यम, उत्तम (पुरुष) के अप्रत्यय हैं। तिप् तस् झि, (प्रथम पुरुष) सिप् थस्, थ (मध्यम पुरुष) मिप् बस्, मस् उत्तम पुरुष के हैं। इसी प्रकार त् आताम्, झ (प्रथम पुरुष) थाल् आधाम् ६ वम् (मध्यम पुरुष) इल् वहिं, भाहेङ (उत्तम पुरुष) के हैं।

सूत्र - तान्येकवचन द्विवचन बहुवचनान्येकशः।

वृत्ति - लब्धप्रथमादि संज्ञानि तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रत्येकमेक वचनादि संज्ञानि स्युः।

अर्थ - प्रथम आदि संज्ञा वाले तिङ् के तीन-तीन प्रत्ययों के समूह में से प्रत्येक की एकवचन आदि संज्ञा होती है।

व्याख्या - यहाँ तिङ सम्बन्धी तिप्, सिप् एवं मिप की एकवचन संज्ञा, तस्, थस् एवं वस् की द्विवचन संज्ञा तथा झि, थ एवं मस् की बहुवचन संज्ञा हुई है।

सूत्र - युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः।

वृत्ति - तिङ्वाच्य कारकवाचिनि युष्मादि प्रमुज्यमानेऽप्रयुज्यमाने च मध्यमः।

अर्थ - तिङ् का वाच्य जो कारक उसके वाचक युष्मद् क्रिया का अर्थ युष्मद् शब्द के उपपद होने
पर, उस (युष्मद्) का प्रयोग हुआ हो या न हुआ हो, मध्यम संज्ञा वाले होते हैं।

व्याख्या - यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जिस तिङ्न्त क्रिया का अर्थ युष्मद् पद वाच्य रहता है उसकी मध्यम पुरुष संज्ञा होती है। इस प्रकार सिप, थस्, थ एवं थास, आथाम्, ह्रवम् प्रत्यय युक्त धातु रूपों की मध्यम पुरुष संज्ञा हुई है।

उदाहरण - 'त्वं भवसि।

सूत्र - अस्मद्युत्तमः।

वृत्ति - तथाभूतेडस्मदि उत्तमः।

अर्थ - इस प्रकार के अस्मद् के रहते तिङ् प्रत्यय उत्तम संज्ञा वाले होते हैं।

व्याख्या - भाव यह है कि जिस तिङ्न्त क्रिया का अर्थ अस्मद् पदवाच्य रहता है उसकी उत्तम पुरुष संज्ञा होती है। इस प्रकार मिप्, वस्, मस, तथा इङ्, वहिङ्, महिङ् प्रत्यय युक्त धातु रूपों की उत्तम पुरुष संज्ञा हुई है।

सूत्र - शेषे प्रथमः।

वृत्ति - मध्यमोत्तमयोरविषये प्रथमः स्यात्।

अर्थ - मध्यम और उत्तम का विषय न होने पर तिङ् प्रत्यय प्रथम संज्ञा वाले होते हैं। व्याख्या - अभिप्राय यह है कि जिस तिङन्त क्रिया का अर्थ पद् पदवाच्य रहता है उसकी प्रथम पुरुष संज्ञा होती है। इस प्रकार तिप् तस् झि तथा त. आताम् झ प्रत्यय युक्त धातुओं की प्रथम पुरुष संज्ञा हुई है।

सूत्र - तिङ् शित् सार्वधातुकम्।

अथवा
'तिङ्-शित् सार्वधातुकम्' सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।

वृत्ति - तिङ : शितश्च धात्वधिकारोक्ता एतत्संज्ञाः स्युः।।

अर्थ - इस सूत्र के अधिकार में पठित तिङ् और शित् प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा होती है।

व्याख्या - यहाँ तिप् प्रत्यय की तिङ् होने के कारण सार्वधातुक संज्ञा हुई है। यहाँ सार्वधातुक संज्ञा होने से 'कर्तरि शप' सूत्र से धातु से शय प्रत्यय होता है।

उदाहरण - भू + तिप् (भवति)।

सूत्र - कर्तरि शप्।

वृत्ति - कर्त्रर्थे सार्वधातुके परेः धातोः शप्।

अर्थ - कर्ता अर्थ वाले अर्थात् कर्तृवाच्य सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर धातु से शप् प्रत्यय होता है।

व्याख्या - यहाँ तिप् की 'तिङ्क्षित सार्वधातुकम्' सूत्र से सार्वधातुक संज्ञा है अतः उससे परे भू धातु से शप् प्रत्यय हुआ है। शप् प्रत्यय धातु तथा तिङ् के मध्य में होता है। इसे 'विकरण' भी कहा जाता हैं।

उदाहरण - भू + शप् + तिप् (भवति)।

सूत्र - सार्वधातुकाऽऽर्धधातुकयोः।

वृत्ति - अनयोः परयोरिगन्ताङगस्य गुणः।
अर्थ -सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर इगन्त अंग का गुण होता है।

व्याख्या - यहाँ 'यस्मात् प्रत्यय विधिस्तदादि प्रत्ययेगंम्' सूत्र से तिप तथा शप् सार्वधातुक प्रत्ययों के परे रहते 'भू' की अंग संज्ञा हुई है तथा प्रकृत सूत्र से इगन्त अंग 'भू' के अन्त्य वर्ण अकार को गुण 'ओ' हो जाता है।

उदाहरण - भो + अ + ति (भवति)।

सूत्र - झोऽन्तः।

वृत्ति - प्रत्ययावयवस्य झस्यान्तादेशः स्यात्।
अर्थ - प्रत्यय के अवयव 'झ' (झकार) को 'अन्त' आदेश होता है।
व्याख्या - यहाँ 'झि' प्रत्यय के अवयवभूत 'झ' को अन्त आदेश हो गया है।
उदाहरण- भव + अन्त् + इ (भवन्ति)

सूत्र -अतोदीर्घो यञि।

वृत्ति - अतोऽगस्य दीर्घो पत्रादौ सार्वधातुके।

अर्थ- अदन्त अंग को दीर्घ होता है यञादि (यत्र प्रत्याहार के वर्ण हैं आदि में जिसके) सार्वधातुक परे होने पर।

व्याख्या - यहाँ शप् के अकार की 'यस्मात् प्रत्ययविधि स्तदादि प्रत्ययेडंगम्' सूत्र से अंग संज्ञा होकर प्रकृत मूल से मि परे रहते अकार को दीर्घ - आकार हुआ है।

उदाहरण - भवामि (भव + अ + मि)।

सूत्र -परोक्षे लिट्।

वृत्ति - भूतानद्यतनपरोक्षार्थ वृत्तेर्धातोर्लिट् स्यात्। लस्य तिबादयः।

अर्थ - भूत - अनद्यतन परोक्ष अर्थ में होने वाली धातु से लिट् लकार होता है ल को तिप् आदि आदेश होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भू' धातु से परोक्ष भूतकाल के अर्थ में लिट् प्रत्यय हुआ है। जो इन्द्रियों से परे हो उसको परोक्ष कहते हैं। बाद में ल (लिट्) को तिप् आदि आदेश होते हैं।

उदाहरण - भू + लिट् (बभूव)।

सूत्र -परस्मैपदानां णलतुसुस् - थलथुस णल्वमाः।

वृत्ति - लिटस्तिबादीनां नवानां णलादयः स्युः।
अर्थ -लिट् के स्थान में होने परस्मैपद के तिप् आदि नौ प्रत्ययों को गल आदि हो जाते हैं।

व्याख्या - यहाँ त्रस्य सूत्र के अधिकार में लिट् के स्थान में तिप् प्रत्यय होकर प्रकृत सूत्र को णल आदेश हो जाता है।

उदाहरण - भू+ णल् (बभूव)।

सूत्र - भुवो बुग् लुलिटोः।

वृत्ति - भुवो वुगागमः स्यात् लुलिटोरचि।
अर्थ -भू धातु को 'वुक' का आगम होता है। लुङ् और लिट् संबंधी अच् परे होने पर से तिप्

व्याख्या - यहाँ प्रकृत सूत्र से लिट् परे रहते भू धातु को बुक का आगम हुआ है। वुक आगम कित् होने से 'आद्यन्तौटकितौ' सूत्र से भू धातु के अन्त में आता है तथा इसके कारण ही 'क्ङिति च सूत्र धातु का गुण भी नहीं होता है।

उदाहरण - भूव भूव् + अ (बभूव)

सूत्र - लिटि धातोरनभ्यासस्य।

वृत्ति - लिटि परे अनभ्यासधात्ववयवस्यैकाचः प्रथमस्य द्वै, स्तः। आदिभूताक्ष्यः परस्य तु द्वितीयस्य। अर्थ - लिट् परे होने पर अभ्यास रहित धातु के अवयव प्रथम एकाच को द्वित्व होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भूव + अ' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से लिट् परे होने से हलादि एकाच् को द्वित्व हो गया है।

उदाहरण - भूव् भूव् + (बभूव)।

सूत्र - पूर्वोऽभ्यासः

वृत्ति - अत्र ये द्वे विहिते, तयोः पूर्वोऽभ्याससंज्ञः स्यात्।
अर्थ -यहाँ जो दो होने का विधान किया गया है इसमें पूर्व की अभ्यास संज्ञा होती है।

व्याख्या - 'भूव भूव् + अ' में लिटि धातोरनभ्यासस्य' से 'भूव्' का द्वित्व हुआ है अतः प्रकृत सूत्र से यहाँ प्रथम 'भूव' की अभ्यास संज्ञा होती है।

उदाहरण - भूव् भूव् + अ (बभूव)

सूत्र - हलाऽऽदिः शेषः।

वृत्ति - अभ्यासस्पादिर्हलू शिष्यते, अन्ये हलो तुप्यन्ते। इति वलोपे।
अर्थ -अभ्यास का आदि हल् शेष रहता है अन्य हल् लुप्त हो जाते हैं।

व्याख्या - यहाँ 'भूव् भूव् + अ' में प्रथम 'भूव' अभ्यास संज्ञक हैं। अतः प्रकृत सूत्र से आदि हल् भकार को छोड़कर अन्य हल् वकार का लोप हो जाता है।

उदाहरण - भू भूव् + अ (बभूव)।

सूत्र - ह्रस्वः

वृत्ति - अभ्यासस्याचो ह्रस्वः स्यात्।
अर्थ -अभ्यास के अच् को ह्रस्व होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भू भव + अ' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से अभ्याससंज्ञक भू के अकार को ह्रस्व - उकार हुआ है।

उदाहरण - भू भूव् + अ (बभूव)

सूत्र - भवतेरः।

वृत्ति - भवतरेभ्यासस्योकारस्य अः स्पाल्लिटि।
अर्थ - भू धातु के अभ्यास के उकार को अकार होता है लिट् परे होने पर।

व्याख्या - यहाँ 'भु भूव्' + अ' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से लिट् (अ) परे होने के कारण 'भू' धातु के अभ्यास 'भु' के उकार को अकार हुआ है।

उदाहरण - भ भूव् + अ (बभूव)

सूत्र - अभ्यासे चर्च।

वृत्ति - अभ्यासे झलां चरः स्युः जशश्चः। झशां जशः खयां चर इति विवेकः।

अर्थ - अभ्यास में झलों (झल प्रत्याहार के वर्णों) को चर हो जाते हैं और ज‍ भी।

व्याख्या - यहाँ 'भू भव् + अ' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से अभ्यास के चतुर्थ वर्ण 'झत्' अकार के स्थान पर तृतीय वर्ण (जश्) बकार हुआ है।

सूत्र -अभ्यासे चर् च।

वृत्ति - अभ्यासे झलां चरः स्युः जशश्च। झशां जशः खयां चर इति विवेकः।

अर्थ - यहाँ 'भू भूव् + अ इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से अभ्यास के चतुर्थ वर्ण (झल) भकार के स्थान पर तृतीय वर्ण (जश्) बकार हुआ है।

उदाहरण - बभूव + अ (बभूव) 1

सूत्र - लिट् च।

वृत्ति - लिटादेशस्तिङ् आर्धद्यातुकसंज्ञः स्यात्।
अर्थ -लिट् के स्थान में होने वाले तिङ् की आर्धधातुक संज्ञा होती है।

व्याख्या - यहाँ 'भू + थल्' में 'थल' लिट् स्थानीय तिङ् है अतः 'तिशित् सार्वधातुकम्' सूत्र से इसकी सार्वधातुक संज्ञा होती है। परन्तु प्रकृत सूत्र से 'थल्' की आर्धधातुक संज्ञा हुई है। आर्धधातुक संज्ञा होने से लिट् में इट् का आगम होता है।

उदाहरण - भू + थल् (बभूविथ)।

सूत्र -आर्धधातुकस्येड् वलादेः।

वृत्ति - वलादेरार्पधातुकस्य 'इट्' आगमः स्यात्।
अर्थ -वलादि आर्धधातुक को 'इट् का आगम होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भू + थल्' में वलादि आर्धधातुक थल् है अतः प्रकृत सूत्र से उसके आदि में इट् का आगम हुआ है।

उदाहरण - बभूविथ !

सूत्र - अनद्यतने लुट्।

वृत्ति - भविष्यत्यनद्यतनेऽर्थेधातोर्लुट्।
अर्थ -अनद्यतन् भविष्यत् अर्थ में धातु से लुट् लकार होता है।

व्याख्या - यहाँ अनद्यतन् भविष्यत् काल की विवक्षा में भू धातु से लुट् प्रत्यय होता है। अद्यतन और अनद्यतन का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जिस समय से विचार करने लगे तब से अर्ध रात्रिपर्यन्त अद्यतन और अर्धरात्रि के पश्चात् हुए कार्य को अनद्यतन कहते हैं।

उदाहरण - भू + लुट् (भविता)।

सूत्र -स्यत्तासी लृ - लुटोः

वृत्ति - धातोः स्यतासी एत्रौ प्रत्ययौ स्तः, लृलुटोः परतः। शबाद्यपवादः। 'लृ' इति लुङ्लृटोर्ग्रहणम्।

अर्थ - धातु से स्य और तास् प्रत्यय होते हैं 'लृ' अथवा लुट् परे होने पर। यह सूत्र शप आदियों का अपवाद हैं। 'लृ' से यहाँ लृङ और लृट् दोनों का ग्रहण किया गया है।

व्याख्या - यहाँ लुट् लकार वे भू + तिप्' की स्थिति में 'कर्तरि शप' से 'शप्' प्राप्त होता है। किन्तु प्रकृत सूत्र से तिप् (लुट्) परे होने पर उसका बाध होकर तास आदेश हो गया है।

उदाहरण - भू + तास् + तिप् (भविता)।

सूत्र -आनि लोट्।

वृत्ति - उपसर्गस्थाद् निमित्तात् परस्य लोडादेशस्य 'आनि' इस्यस्य नस्य णः स्यात्।

अर्थ - उपसर्ग में स्थित णत्व के निर्मित (र्ष) से परे होने पर लोट के आदेश 'आनि' के न को ण् हो जाता है।

व्याख्या - उपसर्ग २२ होते हैं। आ, प्र, उप्, अप, अभि, प्रति, अति, सु, निर, दुर, नि, अव, उत्, सम, वि, अनु, अपि, परि, अधि। इनमें यदिं णत्व के लिए (र् ष्) से परे अर्थात् बाद में हो तो लोट का आदेश आनि का जो न होता है वह णत्य हो जाता है।

उदाहरण - प्रभवाणि।

सूत्र -नित्यं ङितः।

वृत्ति - सकारान्तस्य ङिदुत्तमस्य नित्यं लोपः। अलोऽन्तस्येति सलोपः।

अर्थ - डित् लकारों के उत्तम पुरुष के अन्त्य सकार का नित्य लोप होता है। अलोऽन्तयस्य सूत्र से अन्त्य सकार का ही लोप होता है।

व्याख्या - यहाँ लोट् लकार के उत्तम पुरुष द्विवचन में 'भवावस' इस अवस्था में 'लोटे लवत्' सूत्र की सहायता से प्रकृत सूत्र से अन्त्य सकार को लोप होकर 'भवाव' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार का कार्य 'भवाम' में जानना चाहिए।

उदाहरण - भवाव, भवाम|

सूत्र - लुङ् - लङ् - लृङक्ष्वड् उदान्तः।

वृत्ति - एष्वगंस्याऽट्।
अर्थ - इन के परे होने पर अंग को अट् का आगम होता है।

व्याख्या - यहाँ प्रकृत सूत्र से भू धातु से लड़ के परे रहते अट् आगम हुआ है। टित होने से यह 'आद्यन्तौ टकितौ सूत्र से 'भू' अंग का आदि अवयव बनता है।

उदाहरण - अभवत्।

सूत्र - इतश्च।

वृत्ति - ङितो लस्य परस्मैपदमिकारान्तं यत् तदन्तस्य लोपः।

अर्थ - ङित् लकारों के स्थान में हुआ आदेश जो परस्मैपद इकरान्त है, उसके अन्त का लोप हो जाता है।

व्याख्या - यहाँ लङ् लकार के प्रथम पुरुष, एकवचन में 'अभव + ति' इस स्थिति में प्रकृत सूत्र से 'ति' के अन्त्य इकार का लोप हो गया है।

उदाहरण - अभवत्।

सूत्र - पासुट् परस्मैपदषूदात्तो ङिच्च।

वृत्ति - लिङ् परस्मैपदानां पासुट आगम उदातो डिच्च।

अर्थ - लिङ् के परस्मैपद प्रत्ययों को यासुट का आगम होता है वह उदात्त एवं ङित होता है। व्याख्या - यहाँ लिङ् लकार के प्रथम पुरुष एकवचन में भू धातु से तिपू आने पर प्रकृत सूत्र से लिङ् स्थानिक 'तिप्' के लकार को यासुट् आगम हुआ है। यह आगम टित् होने से 'आद्यन्तौ टकितौ' सूत्र से तिप् प्रत्यय का आदि अवयव बना है।

उदाहरण - भवयास + त् (भवेत्)

सूत्र - लिङ् सलोपोऽनन्त्यस्य।

वृत्ति - सार्वधातु कलिडोडन्त्यस्य सस्य लोपः।
अर्थ - सार्वधातुक लिङ् के अन्त में होने वाले सकार का लोप होता है।

व्याख्या - इस सूत्र में 'भव यात् त्' इस अवस्था में 'यास' के सकार का लोप प्राप्त होता है किन्तु अतो येयः सूत्र से उसका बांध होकर 'यास' के स्थान पर 'इय्' आदेश हो जाता है।

सूत्र - अतो येयः।

वृत्ति - अतः परस्य सार्वधातु कवयवस्य 'यास्' इत्यस्य इप्।
अर्थ -अदन्त अंग परे सार्वधातुक के अवयव 'यास्' को 'इय्' होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भव + यास् त् इस स्थिति में अदन्त अंग भव से परे प्रकृत सूत्र से 'पाम्' को 'इप' आदेश हुआ है। यहाँ 'आदगुणः' से गुण करके तथा 'लोपो व्योर्वलि से य का लोप करके भवेत्' रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण - भवेप् + त् (भवेत्)

सूत्र - लोपो व्योर्वलि।

वृत्ति - वलि वकारयकारयोर्लोपः।
अर्थ - वल परे रहते वकार तथा यकार का लोप होता है।

व्याख्या - यहाँ 'भवेत् + त्' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से बल् तकार परे होने पर पकार का लोप हुआ है। इसी प्रकार भवेताम् में भी समझना चाहिए।

उदाहरण - भवेत्, भवेताम्।

सूत्र - झेर्जुस्।

वृत्ति - लिडो झेर्जस् स्यात्।
अर्थ - लिङ् के 'झि' को जुस होता है।

व्याख्या - यहाँ लिङ् लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन में 'भवेप + झि' की स्थिति में प्रकृत सूत्र से 'झि' के स्थान पर जुस् हुआ है। जुस् के जकार की 'चुटू' सूत्र से इत् सञ्ज्ञा होकर 'भवेपुः' यह रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण - भवेपुः

सूत्र -किद आशिषि।

वृत्ति - आशिषि लिङों यासुट् कित्।

अर्थ - आर्शीलिंग को होने वाला यासुट् भिन्त होता है। 'स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से सकार का लोप हो जाता है।

व्याख्या - यहाँ भू धातु से आशीर्वाद अर्थ में लिङ् आने पर उसके स्थान में यथाक्रम से तिबादि आदेश हुए। 'यासुट् परस्मैपदेषु उदात्तो डिच्च' सूत्र से यासुट् आगम होकर प्रकृत सूत्र से यह कित् हो जाता है, कित होने से 'क्ङिति च' सूत्र से गुण का निषेध हो जाता है।

उदाहरण - भू + यास् + तु (भूयात्)

सूत्र - 'ग्विडति च।

वृत्ति - गित् किम् - ङित् - निमित्ते इग्लक्षणे गुणवृद्धी न स्तः।

अर्थ - यहाँ आशीर्लिङ प्रथम पुरुष के एकवचन में 'भू + यास् + तिप्' की स्थिति में आर्धधातुक परे होने से 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' से इगन्त अंग 'भू' के अन्त्य इकार को गुण प्राप्त होता है परन्तु यासुट् के कित् होने पर प्रकृत सूत्र से गुण का निषेध हो जाता है।

उदाहरण - भूयात्।

सूत्र -च्लि लुङि।

वृत्ति - शबाद्यपवादः।
अर्थ - लुङ् परे होने पर धातु से च्लि प्रत्यय होता है। च्लि शप् आदि का बाधक है

व्याख्या - यहाँ लुङ् लकार के प्रथम पुरुष एकवचन में 'अभू - तिप' की स्थिति में सार्वधातुक तिङ् (तिप्) परे होने से 'कर्तरि शप' से शप् प्राप्त होता है जिसका प्रकृत सूत्र से निषेध होकर चिल आदेश होता है।

उदाहरण - अभू + चिल + त् (अभूत्)

सूत्र - भूसुवोस्तिङि।

वृत्ति - 'भू' 'सू' एतयोः सार्वधातु के तिङि परे गुणो न।
अर्थ - 'भू' और 'सू' धातुओं को सार्वधातुक तिङ् परे रहते गुण नहीं होता है।

व्याख्या - यहाँ आशीर्लिङ् के प्रथम पुरुष एकवचन में 'अभू + तिप्' की स्थिति में सार्वधातुक "तिप्' प्रत्यय परे होने पर प्रकृत सूत्र 'भू' धातु से सार्वधातुक तिङ् (तिप्) परे होने के कारण उसका निषेध हो गया है।

उदाहरण - अभूत्।

सूत्र - लिङ्निमित्ते लृङ् क्रियाऽतिपत्तौ।

वृत्ति - हेतुहेतुमद्भावादि लिङ्निमित्तम् तंत्र भविष्यत्यर्थे लङ् स्यात् क्रियाया अनिष्पत्तौ गम्यमानायाम्।

अर्थ - लिङ् का निमित्त होने पर भविष्यत् अर्थ में धातु से लृङ लकार होता है,

व्याख्या - यहाँ हेतु - हेतुमद् भाव में भविष्यत् काल विवक्षित होने पर प्रकृत सूत्र से 'लृङ् का विधान किया गया है।

उदाहरण - अभविष्यत्।

सूत्र - अत आदेः।

वृत्ति - अभ्यासस्याऽऽदेरतो दीर्घः स्यात्।
अर्थ -अत इति अभ्यास के आदि अकार का दीर्घ हो जाता है।

व्याख्या - 'अत्' धातु के लिट् लकार के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'अत् अ' इस दशा में 'अत्' का द्वित्व तथा अभ्यास- कार्य हलादिशेष होने पर 'अ अत् + अ' इस स्थिति में अकार को अभ्यास के आदि होने से दीर्घ हो जाता है।

उदाहरण - आत।

सूत्र -न माड्योगे

वृत्ति - आडाटौ न स्तः
अर्थ - माड़ के योग में अट् और आट् आगम नहीं होता।

व्याख्या - 'मा भवान भूत' इस वाक्य में अट् न होने से 'भूतत् यही रूप लुङ के प्रथम के एकवचन में हुआ। इसी प्रकार 'या स्त भवत्' और 'या स्म भूत' में भी अट् नहीं हुआ।

सूत्र -आड् अजादीनाम्।

वृत्ति - अजादेरंगस्याऽऽट् लुङ्लङलृङ्क्षु।
अर्थ - अजादि अंग की आट् आगम हो लुङ्, लङ् और लृङ् परे होने पर। आट् आगम होगा।

व्याख्या
- अत् धातु के लड़ के प्रथम पुरुष के एकवचन में लावस्था में प्रकृत सूत्र से अजादि होने के कारण अंग को 'आट' आगम होता है।

उदाहरण - आतत्। अतेत्।

सूत्र -इट ईटि।

वृत्ति - इट: परस्य सस्य लोपः स्याद् ईटि परे।
अर्थ - इट् से परे सकार का लोप हो ईट् परे होने पर।

व्याख्या - यहाँ इट् से परे सकार है और उससे परे इट् भी है, अतः सकार का लोप हो गया तब 'आत् ई ईत' इस दशा में दोनों इकार और ईकार को सवर्णदीर्घ प्राप्त होता है।

उदाहरण - आत्।

सूत्र - असंयोगाल्लिट् कित्।

वृत्ति - असंयोगात् परोऽपित् लिट् कित् स्यात्।

अर्थ - असंयोग (संयोग, से भिन्न) से परे अपित् लिट् कित् होता है।

व्याख्या - णल् थल और णल इन तीनों जो तिप्, सिप् और मिप् इन तीन पित् तिङ्गों के स्थान में होते हैं को छोड़कर शेष सभी आदेश अपित हैं। अतः ये सब इस सूत्र से कित् हो जाते हैं। यहाँ, कित् होने का फल 'ग्क्ङिति च' सूत्र से गुण निषेध है।

उदाहरण- सिषिधतुः।

सूत्र - कुहोश्चुः

वृत्ति - अभ्यासकवर्ग - हकारयोश्चवर्गादेशः।
अर्थ -अभ्यास के वर्ग और हकार को चवर्ग आदेश हो

व्याख्या - कवर्ग के वर्णों को क्रमशः चवर्ग को वर्ण आदेश होंगे, प्रथम को प्रथम इत्यादि। हकार को आन्तरतम्य से झकार होगा

उदाहरण - चरवान।

सूत्र -अत् उपाधायाः

वृत्ति - उपधाया अतो वृद्धिः स्यात् ञिति णिति च प्रत्यये परे।
अर्थ - उपधा अकार को वृद्धि हो ञित् और णित् प्रत्यय परे होने पर।

व्याख्या - गद् धातु के लिट् लकार के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'जगद् + ध' इस स्थिति में णित् प्रत्यय णल् (अ) परे है। अतः उपधा अकार को वृद्धि आकार हो गया। जब जगाद रूप बना।

उदाहरण- जगाद्।

सूत्र -णल् उत्तमो वा।

वृत्ति - उत्तमो णल् वा णित् स्यात्।
अर्थ - उत्तम का णल विकल्प से णित होता है।

व्याख्या - प्रकृत में णितृ पक्ष में 'अत उपाधायाः' से वृद्धि होकर रूप बना जगाद अभाव पक्ष में जगद रूप बना।

उदाहरण - जगाद - जगद

 

 

सूत्र -अतो हलादेर्लघोः।

वृत्ति
- हलादेर्लघोरकारस्य वृद्धिर्वा इडादौ परक्यैपदे सिचि।

अर्थ
- हलादि अंग के अवयव लघु अकारा को वृद्धि विकल्प से ही, इडादि परस्मैपद सिच् परे
होने पर।

 

व्याख्या - लुङ् में अट् तिप्, इकार लोप, च्लि, को सिच् आदेश सिच् को इट् आगम और अपृक्त सकार को 'ईट' आगम होने पर 'अगद् इ स् इत्' ऐसी स्थिति बन जाने पर हलादि अंग 'गद्' हैं उससे परे इडादि परस्यैपद सिय् भी है अतः इसके लघु गकारोत्तरवर्ती-अकार में आकार वृद्धि हुई। तब सिच् का लोप होकर रूप सिद्ध हुआ।

 


उदाहरण -
अगादीत् - अगदीत्।

सूत्र -
णो नः

व्याख्या - इस सूत्र से सभी णकारादि धातु नकारादि बन जाते हैं। प्रयोग में सब नकारादि ही रहेंगे। इस दशा में यह निर्णय न हो सकेगा कि कौन सी धातु णकारादि है और कौन नकारादि। नर्द, नट् नाथू, नाधृ, तुनादि, नक्क, नृ, नृती नाचना- इन आठ धातुओं को छोड़ शेष नकारादि धातु णोपदेश हैं।

सूत्र -
उपसर्गाद् असमासेऽपि गोपदेशस्य।

वृत्ति -
उपसर्गस्यात् निमित्तात् परस्य णोपदेशस्य धातोर्नस्य णः।

अर्थ -
उपसर्ग में स्थित निमित्त रेफ से परे णोपदेश धातु के नकार को णकार हो जाता है।
व्याख्या - 'णोनः' सूत्र से आठ धातुओं से भिन्न होने के कारण 'नद' धातु णोपदेश है। इसके नकार को प्र उपसर्ग में स्थित निमित्त रकार से परे होने के कारण णकार हो जायेगा, अतः प्रणदति रूप बना।
सूत्र - इषु गामि यमां छः।

वृत्ति -
एषां छः स्यात् शिति।

अर्थ -
इष् (इच्छा करना) गम् (जाना) और यम उपरमे (निवृत्त होना) धातुओं को शित् प्रत्यय परे होने पर छकार हो जाता है।

व्याख्या -
सूत्र का शब्दार्थ है (इषु गमियमाम्) इष्, गम् और यम् के स्थान में छकार होता है। किन्तु यह छकारादेश किस अवस्था में होता है, यह सूत्र से ज्ञात नहीं होता। इसके स्पष्टीकरण के लिए 'ष्ठिवुक्लमुचमां शिति' से 'शिति' की अनुवृत्ति करनी होगी इस प्रकार सूत्र का पूर्ण भावार्थ होगा - शित् प्रत्यय (जिसके शकार की इत्संज्ञा हो ऐसा प्रत्यय) परे होने पर इष् (इच्छा करना) गम् (जाना) और पद् (निवृत्त होना) के स्थान में छकार होता है और छकारादेश 'अलोऽन्तस्य परिभाषा से इन धातुओं के अन्त्य वर्ण के ही स्थान पर होता है। सार्वधातुक लकारों में ही शित् प्रत्यय 'शप्' से परे मिलता है उन्हीं में छकारादेश मिलता है।

उदाहरण - 
गत् छ् + अ + ति ग त् छ् + अ + ति = कच् छ् + अति
कच् छ् + अति = गच्छति (यहाँ तुक् का आगम 'छेच' से तथा त् को च् 'स्तोः शचुनाश्चु से होकर वर्ण सम्मेलन से गच्छति बना)।

सूत्र -
गम - हन् - जन - खन - घसां लोपः क्ङित्यनङि।

वृत्ति -
एषामुपधाया लोपोऽजादौ क्ङिति न त्वङि।

अर्थ -
गम्। जाना। हन् (हिंसा करना) जन् (पैदा होना) खन् (खनना) और घस् (खाना) धातुओं की उपधा को लोप हो, अजादि कित् और ङित् प्रत्यय परे पर परन्तु अङ् परे रहने पर नहीं होता है।

व्याख्या -
जगमिथ - जगन्थ - थल् में इट विकल्प से होता है क्योंकि गम् धातु तास् में नित्य अनिट् होते हुए अकारवान् है। इट् पक्ष में जगमिथ। इडभावपक्ष में मकार को 'नश्चापदान्तस्य झलि' से अनुस्वार और उसको 'अनुस्वारस्य परि परसवर्णः' से परसवर्ण नकार होकर जगन्थ रूप बनता है।

उदाहरण -
जगमिथ - जगन्थ।

सूत्र -
गमेरिट् परस्मैपदेषु।।

वृत्ति
- गमेः परस्य सादेरार्धधातुकस्येट् स्यात् परस्मैपदेषु।
अर्थ - गम् धातु से परे सकारादि आर्धधातुक को इट् हो परस्मैपद प्रत्यय पर होने पर।
व्याख्या - गमिष्यति यहाँ 'गम् स्य ति' इस स्थिति में गम्धातु से परे सकारादि आर्ध धातुकस्य को परस्मैपद प्रत्यय ति परे होने से प्रकृत सूत्र के द्वारा इट् हो जाता है। तब इट् के इकार इण् से परे होने के कारण 'स्य' प्रत्यय के अवयव सकार को षकार आदेश होकर रूप सिद्ध होता है।
उदाहरण - गमिष्यति। गच्छतु।

 

एध वृद्धौ।

 


सूत्र - टित् आत्मनेपदानां टेरे।
वृत्ति -
टितौ लस्यारमनेपदानां टेरेत्वम्। एधते।
अर्थ - टित् लकार के आत्मनेपद प्रत्ययों के 'टि' भाग को ए हो जाता है।

व्याख्या -
यहाँ लट् लकार के प्रथम पुरुष एकवचन से 'एध' धातु से 'त' यह आत्मनेपद प्रत्यय किया गया है। अतः प्रकृत सूत्र से 'त' की टि भांग अकार के स्थान पर एकार हुआ है।

सूत्र - थासः से।

वृत्ति -
टितो लस्य थासः से स्यात्।
अर्थ - 'टित्' लकार के 'थास्' को 'से' हो जाता है।

व्याख्या -
यह लट्लकार के मध्यम पुरुष एकवचन में 'सध्' धातु से 'थास्' प्रत्यय करने 'एध् + अ + थास्' रूप बना है। प्रकृत सूत्र से यहाँ सम्पूर्ण 'थाम् के स्थान पर 'से' आदेश हुआ है।

उदाहरण -
एधसे।।

सूत्र -
इंजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छः।

वृत्ति -
इजादिर्यो धातुर्गुरुमान् ऋच्छत्ययः तत् आम् स्याल्लिटि।

अर्थ -
जिस धातु के आदि में इच् है और जिसमें गुरुवर्ण है ऐसी 'ऋच्छ' से भिन्न धातु से 'आम्' प्रत्यय होता है लिट् परे होने पर।

व्याख्या
- यहाँ 'एध्' धातु में एकार (इच्) आदि में है तथा 'दीर्घञ्डच' सूत्र से इसकी गुरु संज्ञा भी है। अतः प्रकृतं सूत्र से लिट् प्रत्यय परे रहते 'एध्' धातु से आम् प्रत्यय हो गया है।

उदाहरण -
एधाम् + कृ + त (एधाञ्चके)।

सूत्र -
आम्प्रत्ययवत् कृञोऽनु प्रयोगस्य।

वृत्ति -
आम्प्रत्ययो यस्माद् इति, अतद्गुण संविज्ञानों बहुब्रीहिः। आम्प्रकृत्या तुल्यमनुप्रयुज्यमानात् कृञोऽप्यात्मनेपदम्।

अर्थ -
जिसका अनुप्रयोग किया जाता है उस कृञ् धातु से भी आम् की प्रकृति के समान आत्मनेपद होता है।

व्याख्या -
यहाँ 'एधाम् + कृ + लिट' इस स्थिति में आम् प्रत्यय आत्मनेपदी 'एध' धातु से हुआ है अतः उसके समान अनुप्रयुक्त 'कृञ्' से भी लिट् के स्थान पर आत्मनेपद होगा।

उदाहरण -
एधाम् + कृ + त (एधाञ्चके)।

सूत्र -
लिटस्त झयोरेश् इरेच्।

वृत्ति -
लिडादेशयोस्तझयोः 'एश' 'इरेच' एतौ स्तः।

अर्थ -
जिसका अनुप्रयोग किया जाता है उस कृञ् धातु से भी आय की प्रकृति के समान आत्मनेपद होता है।

व्याख्या -
यहाँ लिट् लकार के प्रथम पुरुष एकवचन में 'एधाम् + कृ + त' रूप बनने पर प्रकृत सूत्र से 'त' के स्थान पर 'एश' होकर 'एधाञ्चक्रे' रूप सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार लिट् लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन में 'एधाम् + कृ + झ' रूप बनने पर 'झ' के स्थान पर 'इरेच्' होकर 'एधाञ्चक्रिरे' रूप सिद्ध होता है।

उदाहरण -
एधाञ्चक्रे। एधाञ्चाक्रिरे।

सूत्र -
इणः षीध्वं लुङ् लिटां घोऽगात्।

वृत्ति - इग्रन्ताद् अंगाद् परेषां षीध्वं - लुड् लिटां यस्य ढः स्यात्।
अर्थ - इणन्त अंग से परे षीध्वम् लुङ् तथा लिट् के धकार को ढकार हो जाता है।

व्याख्या - यहाँ लिट् लकार के मध्यम पुरुष बहुवचन में 'एधाम् + चक्र + ध्वे' इस अवस्था में इन्त अंग 'चक्र' है और उससे परे ध्वम् का धकार है। अतः प्रकृत सूत्र से धकार के स्थान पर ढकार होकर 'एधाञ्चकृ ढवे' यह रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण -
एधाञ्चकृढ़वे।

सूत्र -
धि च।

वृत्ति -
धादौ प्रत्यये परे सस्य लोपः।
अर्थ - धादि प्रत्यय परे होने पर सकार का लोप होता है।

व्याख्या -
यहाँ लृट् लकार के मध्यम पुरुष बहुवचन में 'एध' धातु से 'ध्वम् प्रत्यय होता है। यहाँ पर 'ध्वम्' यह धकारादि प्रत्यय परे है अतः प्रकृत सूत्र से तास' के सकार का लोप हुआ है।

उदाहरण -
एधिताध्वे।

सूत्र -
ह एति।

वृत्ति -
तासस्त्योः सस्य हः स्याद् एति परे।
अर्थ - तास और अस् के सकार को हकार हो जाता है 'ए' परे होने पर।

व्याख्या -
यहाँ लुट् लकार के उत्तम पुरुष एकवचन में एध् धातु से इट् प्रत्यय होकर 'एधितास् + ए' रूप बनता है। यहाँ एकार परे है अतः प्रकृत यूल से 'तास' के सकार को हाकर आदेश होकर 'एधिताहे' रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण -
एधिताहे।

सूत्र -
आमेतः

वृत्ति -
लोट् एकारस्य आम् स्यात्।
अर्थ - लोट् लकार के एकार के स्थान में आम होता है

व्याख्या -
यहाँ लोट् लकार के प्रथम पुरुष एकवचन में 'ए' धातु से 'त्' प्रत्यय होता है। उसके बाद लिटस्तझयोरेशि रेच' से 'एधते' रूप बनने पर प्रकृत सूत्र बनने पर प्रकृत सूत्र से सकार के स्थान पर 'आम्' आदेश हो जाता है।

उदाहरण -
एधताम्।

सूत्र -
सवाभ्यां वाऽमौ।

वृत्ति -
सवाभ्यां परस्य लोडेतः क्रमाद् वाऽमौ स्तः।
अर्थ - सकार और वकार से परे लोट के एकार के स्थान में क्रमशः 'व' तथा 'अम्' होते हैं।

व्याख्या -
वहाँ लोट् लकार के मध्यम पुरुष एकवचन में 'एध्' धातु से 'थास्' प्रत्यय होकर थासः से सूत्र 'थास्' को 'से' हो जाता है। यहाँ प्रकृत सूत्र से सकार से परे लोट के एकार 'व' आदेश होकर 'एथस्व' रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार मध्यम पुरुष बहुवचन में वकार से परे एकार को अम् आदेश करने पर एधध्वम्' रूप सिद्ध होता है।

उदाहरण -
एधस्व, एधध्वम्।

सूत्र -
झस्य रन्।

वृत्ति -
लिङो झस्य रन् स्यात्।
अर्थ - लिङ् के आदेश झ को 'रन्' होता है।

व्याख्या
- यहाँ लिङ् लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन में 'एध' धातु से 'झ' प्रत्यय हुआ है। अतः यहाँ लिङ सीयुट् से सीपुट् आगम आदि कार्य होकर प्रकृत सूत्र से 'झ' को 'स्' आदेश हुआ है।

उदाहरण -
एधेरन्।

सूत्र -
इटोऽत्।

वृत्ति -
लिङादेशस्य इटोऽत् स्यात्।
अर्थ - लिङ के आदेश इट् को 'अत्' होता है।

व्याख्या -
यहाँ लिङ् तकार के उत्तम पुरुष एकवचन में 'एघ्' धातु से 'इट्' प्रत्यय होकर 'एधेय'
+ इ' रूप बनता है। तदन्तर प्रकृत सूत्र से इट् (इ) के स्थान पर अत् (अ) होकर 'एधेय' रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण -
एधेय।

सूत्र
- सुट तिथो।

वृत्ति -
लिङस्तथो सुट्। यलोपः। आर्धधातुकत्वात् सलोपो न।
अर्थ - लिङ् के लकार और थकार को सुट् होता है।

व्याख्या -
यहाँ आशीर्लिङ् के प्रथम पुरुष एकवचन में 'एध' धातु से 'त' आदि होकर 'एध' इ सीयत' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से 'त' को सुट का आगम होकर 'एधिषीष्ट' रूप सिद्ध हुआ है।

उदाहरण-
एधिषीष्ट।

सूत्र -
आत्मनेपदेष्ववनतः

वृत्ति -
अनकारात् परस्यात्मनेपदेषु झस्य 'अत्' इत्यादेशः स्यात्।
अर्थ - अकार भिन्न वर्ण से पर आत्मने पद 'झ' के स्थान में अत् आदेश हो।

व्याख्या -
ऐधिषत एध् धातु से पर 'झ' को अत् आदेश होगा, क्योंकि यहाँ वह आकार से पर नहीं 'सिच् के सकार से परे है। इस प्रकार ऐधिषत' रूप बनता है।

उदाहरण -
एधिंषत्।

सूत्र -
अस्तेर्भूः वृत्ति - आर्धधातुके।

अर्थ -
आर्धधातुक के विषय में 'अस्' धातु को 'भू' आदेश होता है।.

व्याख्या -
लोट् लकार में - अस्तु। तातपक्ष में ङिद्वद्भाव होने से अकार का लोप हो जाता है अतः स्तात् रूप बनता है। ताम् और अन्तु में भी ङिद्वदभाव होने से उकार का लोप होकर स्ताम् और सन्तु रूप सिद्ध होते हैं। मध्यम के एकवचन में सिप को 'हि' आदेश होने पर 'अस हि' यह अवस्था होती है। यहाँ 'हुझल्भ्यो हेर्धि' सूत्र से झल् से परे होने के कारण 'हि' को 'धि' प्राप्त होता है।

उदाहरण -
वभूव, भविता, भविष्यत्ति।

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book